भारतीय काव्यशास्त्र/अलंकारों का वर्गीकरण
वामन से पहले के आचार्यों ने अलंकार तथा गुणों में भेद नहीं माना है। भामह "भाविक" अलंकार के लिए 'गुण' शब्द का प्रयोग करते हैं। दंडी दोनों के लिए "मार्ग" शब्द का प्रयोग करते हैं और यदि अग्निपुराणकार काव्य में अनुपम शोभा के आजाएक को गुण मानते हैं (य: काव्ये महतीं छायामनुगृह्णात्यसौ गुण:) तो दंडी भी काव्य के शोभाकर धर्म को अलंकार की संज्ञा देते हैं। वामन ने ही गुणों की उपमा युवती के सहज सौंदर्य से और शालीनता आदि उसके सहज गुणों स
ध्वन्यालोक में "अनन्ता हि वाग्विकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेयता की ओर संकेत किया गया है। दंडी ने "ते चाद्यापि विकल्प्यंते" कहकर इनकी नित्य संख्यवृद्धि का ही निर्देश किया है। तथापि विचारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थालंकार, रसालंकार, भावालंकार, मिश्रालंकार, उभयालंकार तथा संसृष्टि और संकर नामक भेदों में बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द तथा अर्थ के आश्रित अलंकार हैं। यह विभाग अन्वयव्यतिरेक के आधार पर किया जाता है। जब किसी शब्द के पर्यायवाची का प्रयोग करने से पंक्ति में ध्वनि का वही चारुत्व न रहे तब मूल शब्द के प्रयोग में शब्दालंकार होता है और जब शब्द के पर्यायवाची के प्रयोग से भी अर्थ की चारुता में अंतर न आता हो तब अर्थालंकार होता है।
सादृश्य आदि को अलंकारों के मूल में पाकर पहले पहले उद्भट ने विषयानुसार, कुल 44 अलंकारों को छह वर्गों में विभाजित किया था, किंतु इनसे अलंकारों के विकास की भिन्न अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ने की अपेक्षा भिन्न प्रवृत्तियों का ही पता चलता है। वैज्ञानिक वर्गीकरण की दृष्टि से तो रुद्रट ने ही पहली बार सफलता प्राप्त की है। उन्होंने वास्तव, औपम्य, अतिशय और श्लेष को आधार मानकर उनके चार वर्ग किए हैं। वस्तु के स्वरूप का वर्णन वास्तव है। इसके अंतर्गत 23 अलंकार आते हैं। किसी वस्तु के स्वरूप की किसी अप्रस्तुत से तुलना करके स्पष्टतापूर्वक उसे उपस्थित करने पर औपम्यमूलक 21 अलंकार माने जाते हैं। अर्थ तथा धर्म के नियमों के विपर्यय में अतिशयमूलक 12 अलंकार और अनेक अर्थोंवाले पदों से एक ही अर्थ का बोध करानेवाले श्लेषमूलक 10 अलंकार होते हैं।