भारतीय काव्यशास्त्र/अलंकार और अलंकार्य
अलंकार और अलंकार्य के सम्बन्ध में आचार्यों में विवाद हैं। आचार्यों का एक वर्ग अलंकार और अलंकार्य में अंतर नहीं मानता तथा दूसरा वर्ग अलंकार और अलंकार्य को अलग-अलग मानता है। 11वी शताब्दी से पहले के आचार्यों का यह मत था कि अलंकार और अलंकार्य एक ही है। भामह और दण्डी आदि आचार्य मानते हैं कि शब्द और अर्थ अलंकार्य है और वक्रोक्ति अलंकार है। वक्रोक्ति का अर्थ समान से थोड़ा भिन्न होता है। भामह तो मानते है कि समान रूप में कथन वार्ता कहलाती है, वक्रोक्ति मूल है। अलंकार के माध्यम से जिसकी शोभा बढ़ती है उसे अलंकार्य कहते है। जैसे किसी नायिका का सौंदर्य है अलंकार्य और उस सौंदर्य के वर्णन के लिए चाँद, गुलाब आदि का जो हम उदाहरण देते है वह है अलंकार। भामह और दण्डी इन दोनो को अभिन्न मानते है जैसे प्राण और शरीर। अलंकार और अलंकार्य में सर्वप्रथम भेद कुंतक करते है। कुंतक स्वभाव वर्णन को अलंकार्य और चतुरतापूर्ण शैली में कथन रूप वक्रोक्ति को अलंकार मानते है। इसके पश्चात रसवादी आचार्यों ने अलंकार्य और अलंकार में अंतर स्पष्ट किया हैं। रसवादियों ने अलंकार्य को भी दो भागों मे बाँटा हैः- प्रत्यक्ष और मूल। शब्द और अर्थ का आशय शब्दालंकार और अर्थालंकार से है। जो प्रत्यक्ष है अर्थात शब्द और अर्थ तथा मूल अर्थात रस। इन दोनो की शोभा बढ़ाती है अलंकार। एक उदाहरण से इसे समझे तो हारादि आभूषण है अलंकार, यें स्थूल रूप में शरीर को शोभित करती है और मूल रूप में आत्मा का उत्कर्ष करते है। शुक्ल जी प्रस्तुत को अलंकार्य और अप्रस्तुत को अलंकार कहते है। श्रृद्धा का सौंदर्य है अलंकार्य कविता का प्रस्तुत अर्थ वही है और नील परिधान वाली कविता में मेघआदि का चित्रण उसके सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए है वही अप्रस्तुत है।
संदर्भ
सम्पादन1.हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली--डाॅ. अमरनाथ
2.हिन्दी साहित्य कोश--भाग 1--पृष्ठ 57