भारतीय काव्यशास्त्र/औचित्य सिद्धांत

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औचित्य-सिद्धांत

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औचित्य-सिद्धांत के प्रवर्तक का श्रेय क्षेमेन्द्र को दिया जाता है किन्तु वस्तुतः यह इसके प्रवर्तक न होकर व्यवस्थापक हैं। इनसे पूर्व भी भरत, भामह, दण्डी, रूद्रट और आनन्दवर्धन के ग्रन्थों में इस तत्व पर प्रसंगवंश यत्किंचित संकेत मिल जाते हैं। तथापि औचित्य की कल्पना साहित्य-जगत में बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही थी।

  • भरत ने नाटकीय प्रसंग में पात्र, प्रकृति, वेश-भूषा, भाषा आदि के औचित्य का विस्तृत प्रतिपादन अपने नाट्यशास्त्र में किया है। इस प्रसंग में भरत का यह श्लोक बडा़ ही सारगर्भित है-

'अदेशजो हि वेशस्तु न शोभां जनयिष्यति। मेखलोरसि बन्धे च हास्यायैव प्रजायते'।।

अर्थात् जिस देश का जो वेश है, जो आभूषण जिस अंग में पहना जाता है उससे भिन्न देश में उसका विधान करने पर वह शोभा नहीं पाता। यदि कोई पात्र करधनी को अपने गले में और हाथ में पहने तो वह उपहास का ही पात्र होगा। करधनी का स्थान है कमर। वहीं पहनने पर होती है उसकी उचित शोभा। अतः अभिनय करते समय वेष आयु के अनुरूप होनी चाहिए।

  • भामह का यह कथन भी औचित्य-तत्व की ओर संकेत करता है कि कोई असाधु वस्तु भी आश्रय के सौन्दर्य से अत्यन्त सुन्दर बन जाती है, जैसे- काजल तो स्वभावत: कला होता है, किन्तु सुन्दर स्त्री के नेत्रों में अंजित हो जाने पर उसकी शोभा बढ़ जाती है।
  • दण्डी ने देशगत, कालगत आदि विरोध नामक काव्य-दोषों के सम्बन्ध में यह कहा कि कवि के कौशल से ये विरोध दोषत्व छोड़कर गुण भी बन जाते हैं। यनिकि यदि कोई कवि अपने काव्य में इन दोषों को यथावश्यक रूप में औचित्यपूर्वक , जानबूझकर, सन्निविष्ट कर देता है तो वहां ये दोष गुण बन जाते हैं। सम्भवत: इसी प्रकार की अनेक मान्यताओं के आधार पर, आगे चलकर, आनन्दवर्धन ने नित्य और अनित्य दोष की व्यवस्था की थी।
  • रूद्रट ने संभवत: सर्वप्रथम 'औचित्य' शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है कि काव्य में अनुप्रास-वृत्तियों का प्रयोग औचित्य का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।
  • आनन्दवर्धन ने अलंकार, गुण, संघटना प्रबन्ध, रीति तथा रस के औचित्य की काव्य में पूर्ण गरिमा का अवगाहन किया। औचित्य के सर्वमान्य आचार्य आनन्दवर्धन ही हैं। जिन्होंने रसभंग की व्याख्या के अवसर पर यह मान्य प्रतिपादित किया था-

अनौचित्याद् ॠते नान्यद् रसभंगस्य कारणम्। औचित्योपनिबन्धस्तु रसस्योपनिषद् परा।।

औचित्य ही रसभंग का प्रधान कारण है। अनुचित वस्तु के सन्निवेश से रस का परिपाक काव्य में उत्पन्न नहीं होता। अतः औचित्य का समावेश ही रस का परम रहस्य है।

  • क्षेमेन्द्र अभिनव गुप्त के प्रम शिष्य क्षेमेन्द्र ध्वनिवादी आचार्य थे। जिन्होंने औचित्य को व्यापक काव्य तत्व के रूप विवेचन किया- 'उचितस्य भाव: औचित्यम्' उचित के भाव को औचित्य कहते हैं, अर्थात् काव्य में प्रत्येक काव्य-तत्व का उचित रूप से प्रयोग औचित्य कहलाता है। उनके कथनानुसार काव्य यधपि रससिध्द होता है, किन्तु उसका स्थिर-अनश्वर-जीवित तो औचित्य ही है- औचित्य रससिध्दस्य स्थिर काव्यस्य जीवितम्। क्षेमेन्द्र ने काव्य के विभिन्न अंगों के आधार पर औचित्य के २७ प्रभेद निर्दिष्ट किये जो निम्न तीन वर्गों में विभक्त हो सकते हैं-

१. भाषा- विषयक- पद, वाक्य, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात और काल।

२. काव्यशास्त्र-विषयक- प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकार और रस।

३. वर्ण-विषयक- देश, काल, व्रत, तत्व, सत्व, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिभा, अवस्था, विचार और आशीर्वान।

क्षेमेन्द्र के अनुसार इन सभी अंगों में एकमात्र व्यापक जीवन औचित्य ही है, अर्थात् काव्य में इन सभी काव्य- तत्वों का प्रयोग औचित्य- पूर्ण होना चाहिए। 'काव्यस्यांगेषु च प्राहरौचित्यं व्यापि जीवितम्।। यथा अलंकार और गुण के सम्बन्ध में उनका मन्तव्य है कि जब इनका उचित प्रयोग किया जाएगा तभी ये अलंकार अथवा गुण कहाएंगा, अन्यथा नहीं।

निष्कर्ष अन्त में यह समस्या विचारणीय है कि क्या औचित्य को काव्य की आत्मा मानना संगत है, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और रस क्षेमेन्द्र इनमें से किसी आधार को नहीं अपनाते। यह सभी काव्यांगों को स्वीकार करते हुए केवल उनके औचित्यपूर्ण प्रयोग पर ही बल देने के पक्ष में हैं। अतः औचित्य को काव्य की आत्मा अथवा कोई स्वतन्त्र सिध्दान्त न मानकर इसे सभी काव्य-तत्वों का उत्कर्षक तत्व ही स्वीकार करना चाहिए।

संदर्भ

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१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१४५-१४८

२. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--८८