भारतीय काव्यशास्त्र/रस-निष्पत्ति
रस-निष्पति
सम्पादनरस निष्पति का विवेचन भारतीय काव्य-शास्त्र में विवाद का विषय रहा है। रस के संबंध हर बिंदु पर विचार करने के लिए हमें भरतमुनि के प्रसिध्द सूत्र - विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पति:। को उठाना पड़ता है। मूल समस्या यही है कि १) 'संयोग' और 'निष्पति' इन दो शब्दों से क्या आशय है? २) 'नट' और 'सहदय' में रस का भोक्ता कौन होता हैं? अतः भरतमुनि के परवर्ती आचार्यों ने भरत के इस सूत्र की व्याख्या अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत की हैं।
भट्टलोल्लट : उत्पत्तिवाद (आरोपवाद)
सम्पादनइनके अनुसार अपरिपक्व स्थायी भाव विभावादि का संयोग पाकर जब परिपक्व होता है तभी इसका नाम रस पड़ जाता है। यह रस मुख्य रूप से अनुकार्य (वास्तविक रामादि) में रहता है और गौण रूप से नट में। यधपि भट्ट लोल्लट ने उक्त मन्तव्य में सहदय का उल्लेख नहीं किया, तथापि उन्हें मान्य यह होगा कि सहदय नट-नटी के माध्यम से उसी रस को प्राप्त करता है जिसे वास्तविक रामादि ने प्राप्त किया होगा। इस सिध्दांत को 'आरोपवाद' अथवा 'उत्पत्तिवाद' कहा जाता है।
आझेप शंकुक ने कहा कि भट्ट लोल्लट का यह सिध्दांत कि 'सामाजिक नायक-नायिका द्वारा अनुभूत रस का आस्वादन नट-नटी के माध्यम से प्राप्त करता है। "अतिव्याप्ति दोष से युक्त है जिसमें स्थायीभाव होगा, रस भी उसी में होगा, न किसी अन्य में इस तरह केवल नायक-नायिका ही रसास्वादन प्राप्ति के अधिकारी ठहरते हैं ना कि नट-नटी।
शंकुक : अनुमितिवाद (अनुमानवाद)
सम्पादनशंकुक रस-प्रक्रिया के लिए एक नए तथ्य को प्रस्तुत करते हैं कि रस की स्थिति अनुकार्य (मूल-पात्र) में होती है, नट अपने कुशल अभिनय द्वारा हाव-भाव के माध्यम से उसे प्रदर्शित करना चाहता है। वस्तुत: नट में रस की स्थिति नहीं है पर उसमें यह अनुमान कर लिया जाता है। जब तक सामाजिक नट को उसके अभिनय-कौशल के बल पर रामादि नहीं समझता तब तक उसे रसास्वाद प्राप्त नहीं हो सकता। नट के अभिनय कौशल को देखकर ही सहदय भ्रम के कारण नायक का अनुमान करता है। वस्तुत: शंकुक का सिध्दांत भट्ट लोल्लट के सिध्दांत की मूल भित्ति है। दोनों में थोड़ा सा अंतर यही है कि भट्टलोल्लट के अनुसार सामाजिक नट पर मूल नायकादि का 'आरोप' कर लेता है जबकि शंकुक वह 'अनुमान' कर लेता है कि नट ही मूल नायक हैं। शंकुक का 'अनुमान' अन्य लौकिक अनुमानों से भिन्न और विलक्षण है। जिस प्रकार चित्रतुरंग में भागता हुआ घोड़ा न भागते हुए भी भागता सा प्रतीत होता है।
आक्षेप इस सिध्दांत पर भट्टनायक ने अनेक आक्षेप किये है कि 'अनुमान द्वारा राम-सिता आदि हमारे विभाव नहीं बन सकते। उनके प्रति हमारा संस्कारनिष्ठ श्रध्दा-भाव हमारी रसत्व-प्राप्ति में बाधक सिध्द होगा। अनुमान प्रक्रिया द्वारा सीतादि को रामादि के समान हमारे लिए अपनी प्रेयसी के रूप में माना लेना सम्भव नहीं है, और न ही उसे देखकर हमें अपनी प्रेयसी के रूप में मान लेना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार हनुमान-सदृश महापुरूषों के समान समुद्रोलंघन जैसे असम्भव कार्यों को कर सकने की कल्पना तक क्षुद्र सामाजिक अपने मन में नहीं ला सकता। अतः ऐसे महापुरूषों के साथ सामाजिकों का साधारणभाव सम्भव नहीं है।
भट्टनायक (भुक्तिवाद)
सम्पादनभट्टनायक ने शंकुक के सिध्दांत की सीमाओं और दोषों को पहचान कर रस-निष्पति की नई व्याख्या दी। उनकी धारणा है कि न तो रस की उत्पति होती है और न अनुमिति ही तथा उसकी अभिव्यक्ति भी नहीं होती बल्कि अनुभव और स्मृति के आधार पर रस की प्रतिति होती है। उन्होने शब्द के तीन व्यापार माने हैं- १) अभिधा २) भावकत्व ३) भोग (भोजतत्व)। अभिधा व्यापार द्वारा काव्यार्थ का बोध होते ही साधारणीकारणात्मक भावकत्व व्यापार द्वारा स्थायी भाव और विभाव आदि का समग्र क्रियाकलाप देश, काल, व्यक्ति से सम्बन्ध न रहकर साधारण रूप धारण कर लेता है। परिणामत: उक्त दोनों आपत्तियों का निराकरण हो जाता है। साधारणीकरण होते ही भोग अथवा भोजतत्व व्यापार द्वारा सामाजिक का सत्वगुण उसके रजोगुण और तमोगुणों का तिरोभाव करके उद्रिक्त हो जाता है। इसी व्यापार द्वारा सामाजिक रस का भोग अथवा रसास्वादन प्राप्त करता है।
आक्षेप अभिनवगुप्त ने भट्टनायक सम्मत अभिधा और साधारणीकरण व्यापार को स्वीकार करते हुए भी भोजतत्व व्यापार को स्वीकार नहीं किया। इसके स्थान पर उन्होंने व्यंजना व्यापार स्वीकार किया है।
अभिनवगुप्त (अभिव्यक्तिवाद)
सम्पादनभरत सूत्र के चौथे व्याख्याता अभिनवगुप्त हैं। अभिनव गुप्त ने अपनी मान्यता स्थायीभाव की स्थिति पर केन्द्रित रख कर प्रस्तुत की। उनका कथन हैं कि राग-द्वेष की भावना को मनुष्य जन्म से ही लेकर पैदा होते हैं। समय-समय पर हम परिस्थिति के अनुकूल भावों का अनुभव करते हैं- ये सभी संस्कार रूप में मनुष्य के हृदय में सोते रहते हैं। इनसे रहित कोई प्राणी नहीं होता, हां इनकी प्रबलता में अंतर हो सकता है, यथा कवि में इनकी अनुभूति अन्य की अपेक्षा अधिक होती है। इन्होंने व्यंजना शक्ति के आधार पर रस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि 'विभावादि' और स्थायीभावों में परस्पर व्यंजक-व्यंग्य रूप संयोग द्वारा रस की अभिव्यक्ति होती हैं, अर्थात् विभावादि व्यंजकों के द्वारा स्थायीभाव ही साधारणीकृत रूप में व्यंग्य होकर श्रृंगार आदि रसों में अभिव्यक्त होते हैं, और यही कारण है कि जब तक विभावादि की अवस्थिति बनी रहती है रसाभिव्यक्ति भी तब तक होती रहती है, इसके उपरान्त नहीं।
- निष्कर्ष अभिनवगुप्त रस निष्पति से आशय 'रसाभिव्यक्त' लेते हैं, यह सिध्दांत अधिक वैज्ञानिक होने के कारण पर्याप्त लोकप्रिय हुआ।
संदर्भ
सम्पादन१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--६४-६७
२. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--३६-४३