भारतीय काव्यशास्त्र/साधारणीकरण
साधारणीकरण
सम्पादनरस-निष्पति के प्रसंग में 'साधारणीकरण' शब्द अपना विशेष महत्व रखता है। साधारणीकृत का अर्थ है- किसी वस्तु विशेष को सार्वजनीन वस्तु बनाना। जो वस्तु असाधारण है, विशिष्ट है, उसे साधारण सर्वसामान्य या सार्वजनीन बनाने की क्रिया को साधारणीकरण कहते हैं। डां. नगेन्द्र के शब्दों में काव्य के पठन द्वारा पाठक या श्रोता के भाव का समान्य भूमि पर पहुंच जाना साधारणीकरण है। जब भट्टलोल्ट और शंकुक ने भरत-सूत्र की व्याख्या अपनी दृष्टि से प्रस्तुत की तो उनकी व्याख्याओं पर एक यह अक्षेप भी किया गया कि सहृदय दूसरों के (नायक या मूलपात्र रामादि के या नट-नटी के ) भावों से रसास्वाद किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं? क्योंकि उनमें उन नायक, मूलपात्र या नट-नटी के प्रति प्राय: किसी न किसी प्रकार का पूर्व आग्रह -श्रध्दा, भक्ति, प्रीति, घृणा आदि का भाव रहता है। इसी समस्या के समाधान के लिए सर्वप्रथम भट्टनायक ने 'साधारणीकरण-सिध्दांत दिया। फिर अभिनवगुप्त, धनंजय, विश्वनाथ और जगन्नाथ ने इस तत्व पर विचार किया। वर्तमान युग के कतिपय आचार्यों जिनमें बाबू गुलाब राय, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डां. नगेन्द्र की व्याख्याएं महत्त्व रखती हैं।
भट्टनायक
सम्पादनभट्टनायक ने तीन व्यापारों के माध्यम से साधारणीकरण माना है। भट्टनायक का कथन है कि काव्य या नाटक में (शब्द के पहले व्यापार) अभिधा-व्यापार के उपरांत (शब्द के दूसरे व्यापार ) भावकत्वव्यापार के द्वारा विभाव, अनुमान और संचारिभाव का साधारणीकरण हो जाता है। परिणामस्वरूप सामाजिक के अपने समस्त मोह, संकट आदि से जन्में अज्ञान का निवारण हो जाता है, तथा इसके द्वारा रस भाव्यमान होता है। अर्थात् शब्द के तीसरे 'भोग' नामक व्यापार की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है।
अभिनवगुप्त
सम्पादनअभिनवगुप्त ने अपने ग्रंथ 'अभिनवभारती' में भट्टनायक के सिध्दांत का उल्लेख किया हैं जिसमें यह भी निर्दिष्ट है कि साधारणीकरण किसका होता है तथा रसास्वादन में यह किस स्थिति में रहकर सहायक बनता है? अतः अभिनव गुप्त के कथनानुसार- साधारणीकरण द्वारा कवि निर्मित पात्र व्यक्ति-विशेष न रहकर सामान्य प्राणिमात्र बन जाते हैं, अर्थात् वे किसी देश एवं काल की सीमा में बध्द न रहकर सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक बन जाते हैं, और उनके इस स्थिति में उपस्थित हो जाने पर सहदय भी अपने पूर्वग्रहों से विमुक्त हो जाता है।
धनंजय और धनिक
सम्पादनधनंजय और धनिक ने 'साधारणीकरण' तत्व पर प्रकारान्तर से प्रकाश डाला। 'प्रकारान्तर' से इसलिए कि उन्होंने साधारणीकरण शब्द का प्रयोग न कर 'परित्यक्त-विशेष' का प्रयोग किया है। उनकी मान्यता का अभिप्राय यह है- काव्य-पठन अथवा नाटक-दर्शन के समय सामाजिक के सम्मुख ऐतिहासिक व्यक्ति के स्थान पर कविनिर्मित पात्र ही रहते हैं। जैसे- काव्य में वर्णित राम आदि वास्तविक राम न होकर धीरादात्त आदि (नायकों) की अवस्थाओं के प्रतिपादक होते हैं। इनके प्रति सामाजिक का पूर्व संस्कारवश किसी भी प्रकार का विशिष्ट भाव- पूज्य बुध्दि, आदि भाव-लुप्त हो जाता है, इस दृष्टि से अब उसे रस प्राप्त करने में बांधा नहीं रहती। लेकिन यह इतिहास अथवा पुराण के किसी व्यक्ति-,विशेष पर घटित नहीं हो सकती।
आचार्य विश्वनाथ
सम्पादनआचार्य विश्वनाथ ने सबसे पहले 'साधारणीकरण' की आवश्यकता का प्रश्न उठाया। उनके अनुसार विभाव आदि (विभाव, अनुभाव, संचारी भाव) के व्यापार का नाम साधारणीकरण है, इसी प्रभाव से सामाजिकों के रति आदि भावों का उद्बोध होता है। 'विभावादि का व्यापार' शब्द का अर्थ है समस्त क्रियाकलाप का सम्मिश्रित रूप। इसी प्रभाव के ही परिणामस्वरूप सहदय नायक (मूलपात्र रामादि) से समान भाव प्राप्त कर लेता है अर्थात् वह भी अपने आपको वैसा ही समझने लगता है। और यही स्थिति रसास्वाद की भूमिका है।
जगन्नाथ
सम्पादनविश्वनाथ के उपरांत जगन्नाथ ने नव्य आचार्यों के नाम से एक मत उद्धृत किया, जिसके अनुसार- काव्य या नाटक को पढ़ते अथवा देखते समय सामाजिक में सहृदयता के कारण एक विशेष भावना उत्पन्न होती है जो कि वस्तुत: एक दोष है, जिसके प्रभाव-स्वरूप सामाजिक की आत्मा कल्पित दुष्यन्तत्व से आच्छादित हो जाती है। और तभी उसमें साक्षिभास्य शकुन्तला आदि के विषय में अनिर्वचनिय रति आदि वित्तवृतियां उत्पन्न हो जाती हैं और इन्हीं रति आदि भावों का नाम ही रस है। यह दोष ऐसा है जैसा कि 'सीटी के टुकड़े को देखकर चांदी के टुकड़े का भ्रम होता है।'
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
सम्पादनआचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साधारणीकरण का स्वरूप स्पष्ट किया है, कि- पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्तिविशेष या वस्तुविशेष आती है, वह जैसे काव्य में वर्णित 'आश्रय' के भाव का आलम्बन होती है, वैसी ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलम्बन हो जाती है। उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष- १) साधारणीकरण आलम्बन या आलम्बनत्व धर्म का होना है। २) सहृदय का आश्रय के साथ तादात्म्य होता है। किन्तु एक स्थिति ऐसी भी आती है, जब सहृदय का आश्रय के साथ तादात्म्य नहीं हो पाता है। किन्तु फिर भी ऐसे प्रसंग आह्लादजनक होते हैं। आचार्य शुक्ल ने इसे रसात्मकता की मध्यकोटि माना है।
डां. नगेन्द्र
सम्पादनडॉ. नग्रेन्द ने मूलतः आचार्य शुक्ल की उक्त अन्तिम धारणा- रसात्मकता की मध्यम कोटि को लक्ष्य में रखकर साधारणीकरण के प्रसंग में अपनी यह मान्यता प्रस्तुत की ' साधारणीकरण न तो आश्रय (राम) का होता है, न आलम्बन (सीता) का होता है, अपितु यह कवि की अनुभूति का होता है। और इसके परिणामस्वरूप, उनके कथनानुसार माइकेल मधुसूदन दत्त रचित 'मेघनाद-वध' जैसे ग्रन्थों में आश्रय रूप रावण द्वारा राम की भर्त्सना के समय हमारी रसानुभूति में कोई बांधा नहीं आती। उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि- १) "जिसे हम आलम्बन कहते हैं वह वास्तव में कवि की अपनी अनुभूति का संवेध रूप है। उसके साधारणीकरण का अर्थ है कवि की अनुभूति का साधारणीकरण।" २) कवि वहीं होता है जो अपनी अनुभूति का साधारणीकरण कर सकता है अपनी अनुभूति को व्यक्त कर लेना एक अलग बात है, इसका साधारणीकरण कर लेना अलग बात।"
निष्कर्ष
सम्पादनइस प्रकार भट्टनायक से लेकर डां. नगेन्द्र तक साधारणीकरण के स्वरूप प्रतिपादन से स्पष्ट है कि असाधारण (विशेष) का साधारण रूप ग्रहण कर लेना साधारणीकरण कहलाता है। परिणामस्वरूप, सहृदय अपने पूर्वग्रहों से मुक्त हो जाता है और साधारणीकरण रसास्वाद के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है।
संदर्भ
सम्पादन१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--६८-७२
२. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--४४-५०