भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)/काव्य- प्रयोजन

भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)
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काव्य- प्रयोजन

काव्य प्रयोजन

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काव्य प्रयोजन का अर्थ है, काव्य का उद्देश्य अर्थात कवि अपने काव्य के द्वारा जिस वस्तु को प्राप्त करना चाहता है उस इक्छित फल को काव्य का प्रयोजन ,उद्देश्य या लक्ष्य कहते हैं।

संस्कृत के प्रख्यात काव्यशास्त्रियों में से भरतमुनि, भामह , रुद्रट , वामन , भोज , कुंतक , मम्मट , हेमचंद्र और विश्वनाथ ने उक्त परिपाटी का परिचालन करते हुए ग्रंथ आरंभ में काव्य प्रयोजन की चर्चा की है। इन मतो को ऐतिहासिक क्रम में विवेचन कर हम काव्य के प्रयोजन को स्पष्ट कर सकते हैं।

भरतमुनि

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भरतमुनि ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र के माध्यम से काव्य के प्रयोजन का उल्लेख सर्वप्रथम किया है । इनके कथानुसार नाट्य (काव्य) धर्म , यश और आयु का साधक , हितकारक , बुद्धि का वर्द्धक एवं लोकोपदेशक होता है -

"धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम्।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति॥"

- (नाट्यशास्त्र, १/११३-१५)

अर्थात नाटक की रचना से केवल रचनाकार को ही श्रेय नहीं मिलेगा बल्कि उसके आश्रय सामाजिक लोगों को भी उसका फल मिलेगा। यह नाटक लोगों को धर्म, आयुष्य, हित और बुद्धि को बढ़ाने वाला तो होगा ही, इसके साथ साथ लोगों को उत्तम, मध्यम और अधम लोगों की पहचान करने में सहायक तथा हितकारी उपदेश देने वाला भी होगा।

भामह के शब्दों में , उत्तम काव्य की रचना धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ को तथा समस्त कलाओं में निपूर्णता को , और प्रीति (आनंद) तथा कीर्ती को उत्पन्न करती है -

"धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्त्ति प्रीतिं च साधुकाव्य-निबंधनम्॥"

- (काव्यालंकार, १/२)

यहाँ पर भामह ने चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति को काव्य रचना का कारण बताकर कवि के लिए अन्य सांसारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह को उसी में समाहित कर दिया है। इन परियोजनाओं को गिनाते समय भामह के सामने सम्भवतः भरत का आदर्श रहा हो और शायद यही कारण है कि इन दोनों आचार्यों द्वारा प्रस्तुत काव्य प्रयोजनों में प्रत्यक्ष समानता दृष्टिगत हो जाता है । भरत के धर्म्य और यशस्य विशेषण भामह के यहां क्रमशः धर्म और कृति रूप में देखते हैं । भरत का बुद्धिविवर्धना विशेषण भामह के शब्दों में कलाओं में वेक्षण्य रूप से स्वीकृत किया जा सकता है ।

रुद्रट

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"नृत्वा यथा हि दुर्गा केचित्तीर्णा दुस्तरां विपदम्।
अपरे रोगविमुक्तिं वरमन्ये लेभिरेऽभिमत्म्॥"

(काव्यालंकार, १२/१, १/८, ९)

रुद्रट ने स्वसम्मत काव्य प्रयोजनों में चतुर्वर्ग को भी स्थान दिया । उपर्युक्त चतुर्वर्गफल प्राप्ति रूप प्रयोजन के अतिरिक्त रुद्रट ने अन्य प्रयोजनों का भी उल्लेख कर प्रयोजन के लिए एक भूमि तैयार कर दी । रुद्रट - प्रस्तुत अन्य प्रयोजन हैं अनर्थ का उपशम , विपद का निवारण , रोग से विमुक्ति तथा अभिमत वर की प्राप्ति । रूद्रट का काव्य प्रयोजन इस मायने में विशिष्ट है कि वह अनर्थ, विपत्ति के विविध रूपों के निवारण में समर्थ काव्य के अलौकिक महत्व की प्रतिष्ठा करता है। यह तन्त्र और आगम ग्रंथों की रचना का काल भी है।

"काव्यं सत् दृष्टादृष्टार्थ प्रीतिकीर्त्तिहेतुत्वात्।
काव्यं सत् चारु, दृष्टप्रयोजनं प्रीतिहेतुत्वात्।
अदृष्ट प्रयोजनं कीर्त्तिहेतुत्वात्।"

(काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, १/१/५)

वामन ने कृति और प्रीति को काव्य प्रयोजन के रूप में अपना लिया। इनके अनुसार काव्य के मुख्यतः दो प्रयोजन हैं - दृष्ट एवं अदृष्ट। दृष्ट प्रयोजन का संबंध प्रीति से है तो अदृष्ट का संबंध कीर्ति से। प्रीति के द्वारा लौकिक फल की तो कीर्ति द्वारा अलौकिक फल की प्राप्ति होती है।

कुन्तक

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कुंतक ने स्वसम्मत काव्य प्रयोजनों में चतुर्वर्ग को भी स्थान दिया। और उपर्युक्त चतुर्वर्गफल प्राप्ति रूप प्रयोजन के अतिरिक्त कुन्तक ने अन्य प्रयोजनों का भी उल्लेख कर मम्मट के लिए एक भूमि तैयार कर दी ।

"धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः।
काव्यबंधोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारकः॥

कुन्तक प्रस्तुत अन्य प्रयोजन हैं -(१) चतुर्वर्ग की प्राप्ति की शिक्षा (२) व्यवहार आदि के सुंदर रूप की प्राप्ति तथा (३) लोकोत्तर आनंद की उपलब्धि। काव्य धर्मादि का साधन और उपाय है। साधन कवियों के लिए और उपाय पाठकों के लिए। काव्य को पढ़ना भी धर्म माना जाता है।

काव्य प्रयोजन के संबंध में अपने पूर्ववर्ती मतों का समाहार करते हुए मम्मट कहते हैं कि -

"काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिर्वृत्तये कांतसम्मिततयोपदेशयुजे॥"

- (काव्यप्रकाश, १/२)

अर्थात काव्य का प्रयोजन है यश और धन की प्राप्ति , व्यवहार का ज्ञान , शिवेतर (दु:ख , का नाश , तुरंत परम आनंद अर्थात रस की प्राप्ति तथा कांतासम्मति उपदेश। काव्य रचना का कारण व्यावहारिकता के धरातल पर अधिक व्यापक रूप में (उपयोगिता की नज़र से) पेश करते हुए मम्मट मानते हैं कि काव्य से यश, धन, व्यवहार ज्ञान, अमंगल का नाश, तुरंत आनंद की प्राप्ति और कांता (प्रेमी, प्रेयसी) की तरह उपदेश मिलता है।

सहृदय द्वारा रसानुभूति की प्राप्ति में तो कोई सन्देह ही नहीं है , किन्तु कवि द्वारा इस प्राप्ति का प्रश्न विचाराधीन है । समस्या को सहज रूप में सुलझाने के लिए आदि - कवि वाल्मीकि का उदाहरण ले लिया जाए । क्रौंच - मिथुन में से एक के वध को देखकर वाल्मीकि का शोकाकुल हो जाना उसी प्रकार सहज - सम्भव था जिस प्रकार किसी भी अन्य करुणाई व्यक्ति का । निस्सन्देह यहाँ तक वाल्मीकि एक सामान्य व्यक्ति के समान लौकिक शोक रूप भाव का अनुभव कर रहे हैं , न कि करुण रस का।

मम्मट की यह परिभाषा कवि और पाठक दोनों की जरूरतों में आवश्यक तालमेल बैठाने तथा कविता द्वारा दोनों की जरूरतें पूरी होने के सामंजस्यवादी दृष्टिकोण का परिणाम है। भरत मुनि के यहाँ सामाजिक का महत्व अधिक और कवि की जरूरतों की उपेक्षा दिखाई देती है तो भामह आदि आचार्य कवि की आवश्यकता को मुख्यतः ध्यान में रखते हैं। मम्मट के यहाँ कवि और सामाजिक (पाठक) दोनों के हितों व जरूरतों का उचित अनुपात में ध्यान रखा गया है।

विश्वनाथ

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"चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि।" - (साहित्यदर्पण, १/२)

मम्मट के पश्चात काव्य के प्रयोजन पर विचार में नवीनता का अभाव मिलता है। बाद के आचार्यों ने केवल मम्मट के ही विचारों को व्याख्यायित किया है। विश्वनाथ ने काव्य के प्रयोजन के तहत चतुर्वर्ग की प्राप्ति को महत्व दिया है।

निष्कर्ष

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उपर्युक्त आचार्यों के मत का अध्ययन करते हुए हम कह सकते हैं काव्य की रचना किंचित उद्देश्य को ध्यान में रखकर की जाती है। भारतीय परंपरा में काव्य या साहित्य 'सत्यं शिवं सुंदरं' का सच्चा वाहक है। सत्य (यथार्थ) और शिव (कल्याणकारी) हुए बिना किसी भी कृति का सुंदर होना असंभव है। कदाचित इसीलिए हिंदी आलोचना ने भी लोकमंगल एवं जनपक्षधरता को साहित्य का वांछित प्रयोजन स्वीकार किया है। भारतीय संस्कृत आचार्यों की दृष्टि सदैव इस बात पर रही कि कवित्व शक्ति एक दुर्लभ व श्रेष्ठ प्रतिभा है। काव्य के द्वारा कवि जीवन का परिष्कार करता है। भारतीय साहित्य का प्रधान लक्ष्य रस का उद्रेक होते हुए भी प्रकारांतर से जीवनमूल्यों का उत्थान एवं सामाजिक कल्याण है। काव्य लोक का पथप्रदर्शक बने और शांति व सुव्यवस्था लाने का माध्यम बने, कवि की दुर्लभ प्रतिभा समाज के लिए उपयोगी हो, इसकी चिन्ता व निर्देश के रूप में काव्य प्रयोजन की अवधारणाओं का विकास हुआ है।