भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)/विषम सममात्रिक छंद
कुंडलिया
सम्पादनपरिभाषा- जिस छंद के छह चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 24 मात्राएं होती हैं। प्रथम दो चरण दोहा छंद में तथा अंतिम चार चरण रोला में लिखे जाते हैं। द्वितीय चरण के उत्तरार्ध का वाक्यांश ही तृतीय चरण का पूर्वार्ध का वाक्यांश होता है। दोहा कि यति ही घूमकर रोला छंद में आ जाती है , इससे कुंडली सी बन जाती है और इस छंद के प्रारंभ का शब्द ही छंद के अंत में प्रयुक्त होता है उसे कुंडलियां छंद कहते हैं।
उदाहरण
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।
दोहा काम बिगाड़े आपनो जग में होत हसाय।
जग में होत हसाय चित में चैन ना पावे।
खान,पान, सम्मान ,राग रंग मन ही ना भावे
कह गिरधर कविराय दुख कछु न टरत ना टारे रोला
खटखत है जीय माही कियो जो बिना विचारे
छप्पय
सम्पादनछप्पय छंद - यह छंद विषम सममात्रिक छंद है । यह छंद रोला और उल्लाला छद के मेल से बनता है । पहले चार चरण ( 24 मात्राओं ) के होते हैं और अंतिम दो चरण उल्लाला ( 26 मात्राओं अथवा 28 मात्राओं ) के होते हैं ।
परिभाषा - जिस छंद के पहले चार चरण 24-24 मात्राओं के होते हैं और अंतिम दो चरण 28-28 मात्राओं के होते हैं । जो छंद रोला और उल्लाला छंद के मेल से बनता है । इसमें छह चरण होते हैं । उसे छप्पय छंद कहते हैं ,
उदाहरण
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है ।
सूर्यचन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है ।
नदियाँ प्रेम - प्रवाह कूल तारे मंडन है ।
रोला बन्दीजन खग - बन्द , शेष - फेन सिहासन हैं ।
करते अभिषेक पयोद है , बलिकारी इस वेष की ।
हे मातृभूमि तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।
(मैथिलीशरण गुप्त)