हिंदी आलोचना/आधुनिक साहित्य : नई मान्यताएँ,

आधुनिक साहित्य : नयी मान्यताएं – हजारी प्रसाद

द्विवेदी

साहित्य की नयी मान्यताओं पर बिचार करने के पहले मैं यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि साहित्य की नयी मान्यताएं जीवन की नयी मान्यताओं मे विच्छिन्न नहीं हैं । हमारा आधुनिक साहित्य यूरोपियन सम्पर्क के बाद ही विकसित हुआ है । सौभाग्यवश जिन दिनों अंग्रेजी साहित्य के साथ भारतवर्ष का सम्पर्क हुआ, वह काल अंग्रेजी भापा के इतिहास का बहत ही समृद्धकाल था । उन दिनों जड़ विज्ञान नित्य नये सुधरे यन्त्रों को उत्पन्न कर रहा था और ये सुधरे ल्डा'

यन्त्र नित्य-नवीन सम्पत्ति से उस देश को सम्पन्न बना रहे थे । यद्यपि इसकी भूमिका सोलहवीं शताब्दी से ही तैयार हो रही थी- -क्योंकि उन्हीं दिनों धर्म औरकलाके साथ लोक- चित्त को प्रभावित करनेवाला वह नया शास्त्र जन्म ले रहा था जिसे विज्ञान कहा जाता है-पर । मूवी शताब्दी के पहले वह इनका सच्चा प्रतिद्वन्द्वी नहीं बन सका था । इस शताब्दी में प्रत्येक सुसंस्कृत व्यक्ति के चित्त पर इसका प्रभाव पड़ा और उन्नीसवीं शताब्दी में वह नाना ऐतिहासिक शक्तियों के दबाब से सुविधाभोगी वर्ग के हाथ से सरककर साधारण जनता के हाथ में आ गया । उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे चरण में यूरोप के विज्ञान की अनेक मानसिक और भौतिक शाखाओं का युगपत् और समानान्तर बिकास हुआ,

जो आगे चलकर बहुत-से ऐतिहासिक परि- वर्त्तनों और विचारगत उथल-पुथल का कारण बना । इन दिनों यूरोपीय विचारों में बड़ा घोर मन्थन टुआ और मानवीय विचारों और क्रियाओं के मूल्यों में क्रान्ति- कारी परिवर्त्तन हुए । इन्हीं दिनों समस्त जागतिक व्यापारों में एक व्यापक नियम और सामंजस्य खोजने की दुर्दम जिज्ञासा-वृत्ति का जन्म हुआ । अन्त में डार्विन ने जीवविज्ञान के क्षेत्र में विकासवाद का प्रतिपादन किया, जिसे सच्चे अर्थो में आधु- निकता की नींव कहा जा सकता है । इसने हर क्षेत्न में मनुष्य को नयी दृष्टि दी । डार्विन के विचारों से ही सूत्र पाकर स्पेंसर ने समस्त जागतिक व्यापारों की विकास-परम्परा को स्पष्ट और प्रतिष्ठित करनेवाले तत्बबाद की स्थापना की । यहाँ से विज्ञान ने मनुष्य की सम्पूर्ण विचारधारा पर प्रभुत्व-स्थापन कि: । आज शायद ही कोई ऐसा ज्ञान-विज्ञान हो जिसे इस विकासवाद के सहारे समझने का यत्न न किया जाता हो । सब प्रकार के आध्यात्मिक दर्शन, सब प्रकार की अलौकिक समझी जानेवाली सौन्दर्यभावना और रससंवेदना, सब प्रकार की कर्म-प्रणालियां इसकी लपेट में आ गयीं । साहित्य के विविध तत्व -छन्द,

अलंकार, शैली,

भाषा- प्रतिपादन--

इस सिद्धान्त के सहारे अधीन और व्याख्यात हुए । यहीं से मनुष्यों ने विचारों के इतिहास की बात सोची,

भावनाओं के क्रमविकास का अध्ययन शुरू किया और मानसग्रन्थियों की ऐतिहासिक बिकास-परम्परा को समझने का प्रयत्न किया । यहाँ से साहित्य को नये रूप में देखा जाने लगा, उसके प्रगमन और प्रति- गमन के कारणों पर बिचार किया जाने लगा और उसके सम्बन्ध में नयी दृष्टि

1 हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थण्लिसं


विकासवाद का सिद्धान्त आजकल प्राय:

सर्वस्वीकृत सिद्धान्त है । इस सृष्टि- प्रक्रियाकोइस दृष्टि से देखनेवालेको यहबात अत्यन्त स्पष्ट हो जायेगी कि मनुष्य के रूपमें ही सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी विकसित हुआ है । मनुष्य-देह मेंही मन और बुद्धि का-भावावेग और तर्क-युक्तिके आश्रय इन्द्रिय-विशेष का--विकास हुआ है । यह संसार क्या है और कैसा है इसके जानने का एकमात्र साधन मनुष्य की बुद्धि है । हम जो कुछ समझ रहे हैं और जो कुछ समझ सकते हैं, सब मनुष्य का समझा हुआ सत्य है । मनुष्य-निरपेक्ष सत्य बात-की-वात है । इस जगत् में जो कृउछ सत्य है वह मनुष्य-सृष्टि मे देखा हुआ सत्य है, अताग्ब मानव-सत्य है । इसीलिए मनुष्य की मर्यादा, उसकी महिमा और उसके विचारों का मूल्य अपार है । इन्हीं बिचारों ने उस विचार-भंगिमा को जन्म दिया जिसे 'न्यू लैमेनिज्म'

या नव मानवतावाद नाम दिया गया है ।


चाहे व्याकरण हो या ज्योतिष,

छन्द हो श प्न्द्रंक्त' १.. नए श? २..

सभी विचारधाराएँ इस यज्ञ-याग की क्रियाओं को ठीक-ठीक सम्पादित करने के उद्देश्य से प्रवर्त्तित हुई । बाद में इन्होंने स्वतन्त्र शास्त्रों का रूप लिया । परवर्ती काल में यद्यपि सभी शास्त्र किसी-नकिसी बहाने श्रुतिसम्मत यज्ञ-याग प्रक्रिया के साथ अपना सम्बन्ध बताते रहे, पर वस्तुत: वे उनसे विच्छिन्न हो गये थे । गुप्तकाल में एक बार पुनर्जागरण अवश्य हुआ और श्रुतिसम्मत क्रियाएं अधिक दृढ़ता से याद की जाने लगीं,

लेकिन तब तक गंगाजी का बहुत पानी समुद्र में ढरक चुका था और धर्म और विश्वास के क्षेत्र में मनुष्यरूप की प्रतिष्ठा स्वीकृत हो चुकी थी । इस युग के काव्य और शिल्पमें देव-देवियाँ निखरे हुााऊ मानव-सौन्दर्यके भीतरसे, प्रकट हुइं । देवता का मनुध्यरूप जिस मोहक और महनीय रूप में इस युग मे प्रकट हुआ,

वैसा पहले कभी नहीं हुआ था । शास्त्र और काव्य, दोनों में ही देवता का नाम लिया जाता रहा, पर मनुष्यही वास्तविक प्रतिपाद्यथा । श्रुति और आप्तवाक्य की महिमा बनी रही, पर मनुष्य की बुद्धि ही अधिक प्रामाण्य समझी गयी; क्योंकि श्रुतिवाक्यों में कौन-सा विधि-परक है और कौन-सा अर्थवाद, इन बातों के निर्णय की कसौटी मनुष्यबुद्धि को ही समझा जाता था । मनुप्यरूपी देवता का और भी व्यापक रूप मध्यकाल के अन्त में आया, जब भगवान् के नररूप की लीला ही सब प्रकारके साहित्य, शिल्प और नृत्यगीत का आश्रय बनी

1 भक्ति का पूरा साहित्य भगवान् के नररूप की लीला को आश्रय करके बना है, वहीं से वह-प्रेरणी पाता रहा है । आगे चलकर हर देवता के अवतार की कल्पना की गयी । भगवद्‌भक्त महात्माओं को भी किसी-न-किसी पुराने आचार्य या भक्त का अवतार माना गया । कोई उद्धव का अवतार समझा गया, कोई वाल्मीकि का, कोई हनुमानजी का तो कोई भगवान् की मुरली का । शिव के भी एकाधिक अवतार स्वीकार किये गये और अवतार- विश्वास इस हद तक पहुँचा कि यह विश्वास किया जाने लगा कि भगवान् नररूप धारण करके नाना भाव से भक्त की सहायता करते रहे हैं । उसकी गाय चरा देते हैं, उसका हाथ पकड़कर रास्ता दिखा देते हैं,

उसकी गलतबयानी को सुधार देते हैं, उसके घर का पहरा देते हैं और ऐसे ही अन्य अनेक कार्य करते हैं । इस युग की सम्पूर्ण मानवीय उच्च साधनाओं के मूल में इस अवतारवादी भक्ति की प्रेरणा है । इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न युगों में साहित्यिक साधनाओं के मूल में कोई-न-कोई व्यापक मानवीय विश्वास होता है । आधुनिक युग का यह व्यापक विश्वास मानवतावाद है । इसे मध्ययुग के उस मानवतावाद से घुला नहीं देना चाहिए जिसमें किसी-न-किसी रूप में यह स्वीकार किया गया था कि मनुष्य-जन्म दुर्लभ है और भगवान् अपनी सर्वोत्तम लीलाओं का विस्तार नररूप धारण करके ही करते हैं । इस विश्वास की सबसे बड़ी बात है इसकी ऐहिक दृष्टि और मनुष्य के मूल्य और महत्व की मर्यादा का बोध ।इस नवीन मानवतावाद को स्वौकार करने का युक्तिसंगत परिणाम हो सकता है मनुष्य की मुक्ति । सब प्रकार के सामाजिक और राजनीतिक औरकइई ं ह?ग्रीप्रणश् स्पिईदी ग्रन्थाथली-हुं।।


आर्थिक शोषणो से मनुष्य को मुक्त किया जाय, क्योंकि मनुष्य के जीवन का बड़ा मूल्य है । मनुष्य पर अकाड विश्वास इसका प्रधान सम्बल है । जिन दिनों इंग्लैण्ड के साहित्य मे भारतबर्ष का प्रथम परिचय हुआ, उन दिनों इस नव-मानवतावाद की प्रतिष्ठा हो चुकी थी । इस सिद्धान्त क्:ाए स्वीकार का ग्रेने मैं कवि-चित्त उन रूढ़ियों से मुक्त हो जाता है जो दीर्घकालीन रीति-नीति से सकती हुई मनुष्य के चित्त पर आ गिरी होती हैं और कल्पना के प्रवाह में और आवेगों की अभिव्यक्ति में बाधा देती हैं । इस सिद्धान्त को स्वीकार कर नेने के बाद कविचित्त में कल्पना के अविरल प्रवाह से घन-संश्लिष्ट निविड़ आवेगों की वह उर्वर भूमि प्रस्तुत होती है जो रोमाण्टिक या स्बच्छन्दतावादी साहित्य के लिााऊ बहुत ही उपयोगी होती है । ऐसे अविरल कल्पना-प्रवाह का स्वाभाविक रूप है कबिचित्त की उन्मुक्तता । जब यह हरक बार साहित्य में प्रकट होती है तो वहजीवन के सभी क्षेत्रों में अपना प्रभाव- बिस्तार करती है । उस काल के अंग्रेजी साहित्य के मर्मज्ञों ने दिखाया है कि उन दिनों इंग्लैण्ड के सभीविचार-क्षेत्रों में यह चित्तगन उन्मुक्तता अपना प्रभाव-बिस्तार कर रही थी । इस युग में मनुष्य ने धर्म पर सन्देह किया, ईश्वर पर सन्देह किया, परम्परा-समर्थित नौतेक दृप्टि-भंगी पर सन्देह किया, परिपाटी-विहित रसज्ञता पर सन्देह किया,

परन्तु फिर भी यह युग अपूर्व विश्वास का युग है;

क्योकि मनुष्य ने अपने ऊपर अविश्वास नहीं किया । उसने मनुष्य की महिमा पर दृढ़तापूर्वक आस्था जमाये रत्वी । मनुष्य सब-कुछ कर सकता है, वह प्रकृति के दुर्ग पर अपनी विजय-

पताका फहरा सकता है,

वह सृष्टि-परम्परा की मबसे उत्तम परिणति है । नवीन साहित्य के मूल में यही विश्वास काम कर रहा था । विःतने ही कवियों में निराशा- वाद का स्वर अवश्य था, पर मनुष्य की महिमा पर औग् टन सब बातों की महिमा पर जो मनुष्य के विशाल चित्त में स्नान करके निकली हैं,

उनकी आस्था बनी रही ।


आज संसार का संवेदनशील चित्त इस भयंकर दुष्परिणाम से व्याकुल हो गया है । सारे संसार के साहित्य के निष्ठावान-मनीषियों के मन में आज एक ही प्रश्न हैं--यही क्या वास्तविक मानवतावाद है, जो मनुष्य को अकारण विनाश के गर्त में ढकेल रहा है? 1 वी शताब्दी के पश्चिमी स्वप्नदर्शियों ने और इस देश के पिछले खेवे के महान् साहित्यकारों ने क्या मानवता की इसी महिमा का प्रचार किया है? आज नाना स्वरो मेँ वैचिब्य-संवलित आकार धारण करके एक ही उत्तर मानवचित्त की गम्भीरतम भूमिका से निकल रहा है; मानवतावाद ठीक है, पर मुक्ति किसकी? क्या व्यक्ति-मानव की?

नही, सामाजिक मानवतावाद ही उत्तम समाधान है । मनुष्य को,

व्यक्ति-मनुष्य को नहीं, बल्कि समष्टि-मनुष्य को,

आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण से मुक्त करना होगा--'नान्यपन्था विद्यते अयनाय'