हिंदी आलोचना/नई कविता का आत्मसंघर्ष
नई कविता का आत्म-संघर्ष : मुक्तिबोध
जब कभी कोई नई काव्य या साहित्य प्रवृत्ति अवतरित होती है, तब उसके कला तत्वों के सिद्धांतों को समझने के दो काम करने चाहिए-
(1) युग विशेष की प्रवृत्तियों को समझना।
(2) नई काव्य प्रवृत्ति को स्वरूप को अपनाना।
किंतु अभी तक पंडितों और आचार्यों , आलोचकों द्वारा ये कार्य नहीं हो सके हैं। लेकिन मुक्तिबोध इसे चिंता का विषय नहीं मानते, वे चिंता को बात यह मानते - कि नई काव्य-प्रवृत्ति के क्षेत्र के भीतर से ऐसी कोई आलोचना अभी नहीं उठी जो उस प्रवृत्ति की सीमाओं की समीक्षा कर पाई हो।
संवेदनशील कवि आस-पास की वास्तविकता के मार्मिक पक्ष दो प्रकार की गहरी चुनौती देते हैं, तत्त्व संबंधी, रूप संबद्धी। आज का कवि-हृदय फैलना चाहता है,आत्म विस्तार करना चाहता है, जिससे मानव वास्तविकता के मूल का मार्मिक दर्शन कर पाए। किंतु ऐसी अभिव्यक्ति सार्थक नहीं हो पाती। क्योंकि ये कविताएँ स्वतंत्र भावों का प्रवाह नहीं करती अपितु संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदनाओं को प्रकट करना चाहती है। किंतु यदि कृविता संवेदनारहित रहकर रहकर केवल ज्ञान पक्ष की बात करे तो वह उपयोगी कविता नहीं।
→ आज की नई कविता की आलोचना के लिए आलोचकों के पास मूलभूत संवेदन शक्ति चाहिए। क्योंकि आज की कविताएं पुराने काव्य-युगों से कही अधिक, परिवेश के साथ बंद स्थिति में प्रस्तुत होती है। जिस कारण कवि को हृदय द्वंदो का भी अध्ययन करना चाहिए ताकि एक ऐसा दृष्टिकोण फैले जो जीवन जगत और अंतरजीवन के द्वंद को व्याख्यायित कर , विश्लेषित और मूल्यांकित करे।