हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)/भेष कौ अंग

हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)
 ← भ्रम विघौसण कौ अंग भेष कौ अंग साध साषीभूत कौ अंग → 
भेष कौ अंग


(5)

कबीर कर पकरै अँगुरी गिनै,मन धावै चहुँ वीर।

जाहि फिराँयाँ हरि मिलै, सो भया काठ कठौर।।


(6)

कबीर केसों कहा बिगाड़िया, जो मुँडै सौ बार।

मन को काहे न मूंडिये, जामैं बिषै-बिकार।।