हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन)/साध साषीभूत कौ अंग
(7)
कबीर हरि का भाँवता, दूरैं थैं दीसंत।
तन षीणा मन उनमनाँ, जगि रूठड़ा फिरंत।।
(8)
कबीर हरि का भावता, झीणाँ पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास।।
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(7)
कबीर हरि का भाँवता, दूरैं थैं दीसंत।
तन षीणा मन उनमनाँ, जगि रूठड़ा फिरंत।।
(8)
कबीर हरि का भावता, झीणाँ पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास।।