हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/पद/(१)काहे री नलिनी तूं कुमिलानी,

सन्दर्भ सम्पादन

स्तुत छंद भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा की संतमार्गी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास द्वारा प्रस्तुत अनुभवों एवं विचारों को संकलित 'ग्रंथावली' से अवतरित है।

प्रसंग सम्पादन

इस रहस्यवादी पद में कबीर ने आत्मा-परमात्मा के संबंध को कमलिनी के माध्यम से उद्घाटित किया है।

व्याख्या सम्पादन

काहे री नलिनी तूं कुमिलानी......ते नहीं मूए हमारे जान॥

कबीर कहते हैं कि हे कमलिनी (जोकि आत्मा का प्रतीक है) तू क्यों कुम्हला रही है, मुरझा रही है। तेरा सीधा संबंध जीव (जोकि परमात्मा का प्रतीक है) से है हे कुमुदनी तेरी नाल जल से जुड़ी है। अर्थात् आत्मा अपने अंशी से पतले तार से जुड़ी हुई है। वे कुमुदिनी को समझते हैं कि तेरी उत्पत्ति अर्थात् जन्म जल में हुआ है, तू जल में ही निवास करती है फिर तू क्यों मुरझा रही है ? अर्थात् जीवात्मा मनुष्य के भीतर जो सूक्ष्म ब्रह्म है, उसी से जुड़ी है फिर भी वह अज्ञानतावश चिंता करती है। हे कुमुदिनी न तेरी तली अर्थात् आधार पाता है न ऊपरी भाग भी तप्त नहीं होता है, क्योंकि तेरे ही भले के लिए काई भी लगी हुई है अर्थात् तुझे तो किसी भी रूप में कष्ट नहीं है, क्योंकि तेरे अन्तर्मन में भी ईश्वर है और बाहर भी जिस प्रकार काई पानी को सूखने नहीं देता ठीक वैसे ही ईश्वर भी कभी भी नहीं मरता और न जीवात्मा मरती है। कबीर कहते हैं जो जल के समान होता है अर्थात् जो परमात्मा का ही बिंब है, वह कभी नहीं मरेगा।

विशेष सम्पादन

१. सधुक्कड़ी भाषा है। 2 प्रसाद गुण है।

३. पद में लाक्षणिकता हैं

४. पद में बिंबात्मकता है।

५. पदों में गेयता है।

६ पद में रहस्यात्मकता है।

७. यहां नलनी जीवात्मा का तथा पानी परमात्मा का प्रतीक है।

८. प्रतीकात्मक भाषा है।

९. जल को जीवन की संज्ञा दी गई है. क्योंकि जल कभी नहीं मरता है। ठीक वैसे ही यहाँ जल अर्थात् ईश्वर के न मरने की बात का प्रतीक बाँधा है, जोकि सार्थक है।

१०. 'कहु कासनि' 'कहै कबीर'-अनुप्रास अलंकार है।

११. इस पद में कबीर ने 'अहं' ब्रह्मास्मि, वाले सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' का प्रतिपादन किया है यहाँ अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट है।

१२. इस पद में कबीरदास ने जीवात्मा के सहज स्वभाव की ओर मार्मिक संकेत किया है। भले ही जीव प्रकट रूप से अपने दु:ख का वास्तविक कारण न जानता हो, परन्तु उसकी आत्मा हृदय में अपने प्रियतम परमात्मा से विमुक्त हो जाने की कसक का अनुभव करती रहती है और उसके प्रति: समस्त प्रयत्न इसी वियोग को दूर करने के हेतु होते हैं।

1३. जीव अपनी यथार्थ स्थिति को विस्मृत कर देता है। वह ईश्वर के निकट रहते हुए भी | उससे स्वयं को विलग समझता है। यही अज्ञान दूर करने के लिए कबीर ने यह पद लिखा है।

शब्दार्थ सम्पादन

नलिनी = कमलिनी। सरोवर - तालाब। उदिक - पानी। नाल- जड़। तोर-तेरा। उतपति = जन्म। आगि = आग। हेतु = करण। मूवी - मृत।