हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/सम्रथाई कौ अंग

हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका
 ← सारग्राही कौ अंग सम्रथाई कौ अंग पद → 
सम्रथाई कौ अंग
कबीर/

सन्दर्भ सम्पादन

प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। यह उनकी 'कबीर ग्रंथावली' से उद्धत है। यह उनके 'समथाई कौ अंग' से अवतरित है।

प्रसंग सम्पादन

इसमें स्वामी के लिए कबीर ने अपने आपको न्यौछायर कर दिया है। वे उसी के नाम का जाप करते हैं। उन्होंने उसको अपना सब कुछ मान लिया है। उसको कोई भी नहीं भुला सकता है। इसी विषय में वे कहते हैं कि-

व्याख्या सम्पादन

कबीर वाऱ्या नांव परि......तिसहिं भुलावै कौंण॥

हे स्वामी! कबीर तेरे नाम की माला जपते-जपते अपने आपको तुझ पर न्यौछावर कर चुका है। तू ही उस का मालिक है। वह तेरे नाम के सहारे ही जीवित है। उसने अपने आपको तुझ पर वार दिया है। तेरे सिवाय इस संसार में और कोई नहीं है। तू ही अब उसका स्वामी है। उसने अपने को तुझ पर राई-लवण कर डाला है। जिसे तू मार्ग पर चलाता है, उसको इस संसार में कौन भुला सकता है? अर्थात् उसे कोई भी भ्रम में नहीं डाल सकता है। वह तेरे ही सहारे चलता है। उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है।

विशेष सम्पादन

इसमें कबीर ने अपने को, स्वामी, जो उसका मालिक है उस पर अपने को न्योछावर कर दिया है। उसके सिवाय वह किसी को नहीं मानता है वहीं उसका रखवाला है। भाषा में स्पष्टता है। निजी भावनाओं की अभिव्यक्ति है सधुक्कड़ी भाषा है। मिश्रित शब्दावली है। बिंवात्मकता है। उपदेशात्मक शैली है। ईश्वर की महत्ता का बखान है। इसमें प्रसाद गुण है।

शब्दार्थ सम्पादन

वार्या- न्यौछावर। नांव - नामण्। कीया - किया। जिसहि-जिसे चलावै- चलाता है। पंथ - सम्प्रदाय, धर्म का रास्ता। तिसहिं - उसें। भुलावै - भुलाना। कौंण - कौन। राई-खूण = राई (नमक)।