हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/हेरी म्हा तो दरद दिवाणाँ
मीराबाई /
सन्दर्भ
सम्पादनप्रस्तुत पद मीराबाई की पदावली से अवतरित है।
प्रसंग
सम्पादनइस पद में मीरा की विरह-भावना व्यक्त हुई है। मीरा अपने आराध्य श्रीकृष्ण के दर्शन मिलन की आस में पीड़ित है। समाज भी उनकी पीड़ा नहीं समझता है। इस पीड़ा का शमन केवल पीड़ा देने वाला ही कर सकता है। अत:मीरा अपनी विरह-वेदना उन्हीं के आगे प्रस्तुत कर रही है। वह कहती है-
व्याख्या
सम्पादन''हेरी म्हा दरद दिवाणा म्हारा दरद ना जाण्याँ कोय।
घायल रो गत घायल जाण्याँ,हिबडो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै,क्या जाण्याँ जण खोय।
दरद को मारया दर दर डोल्या वैद मिल्य णा कोय।
मीरा री प्रभु पीर मिटाँगाजब वैद साँवरो होय।।''
अरी, मैं तो पीड़ा से चीड़ित हूँ। मैं श्रीकृष्ण के प्रेम एवं भक्ति में डूब गयी हूँ। मैंने उनसे प्रेम किया है। जब वह मुझ से नहीं मिलते या मैं उन्हें देख पाती हूँ तो मैं दूखी हो जाती हूँ और मेरे मन में दर्द होने लगता है। आज तक मेरे मन की इस पीड़ा के दर्द को कोई भी नहीं जान पाया है। मैं प्रेम दीवानी हो गई हूँ। मेरा दर्द तो अब दीवाना हो गया है। जो अपने मन में घायल होता है। वही घायल की पीड़ा को जानता है। अर्थात् वही जान पाता है। दूसरे के दर्द को जिसने कभी अपने मन में आग पैदा की हो अर्थात् प्रेम की आग को वही जान सकता है जो प्रेम की आग से गुजरा हो। सोने की परख वही कर सकता है जो वास्तव में सुनार है। वही पहचान पाता है कि सोना खरा या खेटा है, क्योंकि यह उसी का काम है पहचानना। जब किसी को दर्द होता है तो वह दर्द की पीड़ा की वजह से इधर-उधर भगता-फिरता है, क्योंकि वह दर्द की पीडा से परेशान होता है। मगर जब उसे कोई वैद्य (दवाई देने वाला) नहीं मिलता है तब उसे कितनी पीड़ा होती है? जब तक वह नहीं मिलता है तो वह दर्द में बिलखता रहता है। भले ही वह द्वार-द्वार भटका मगर उसे कोई भी वैद्य नहीं मिला। मीरा कहती है कि मेरे तो प्रभु कृष्ण ही हैं जो मन की पीड़ा को दूर करेंगे। मेरे दर्द का इलाज उन्हीं के पावस है। वे ही मेरे कृष्ण मेरी पीडा को हरेंगे, क्योंकि इस दर्द की दवा उन्हीं के पास है। किसी और के पास नहीं है।
विशेष
सम्पादनविशेष-इसमें मीरा के मन में बसे हुए कृष्ण की छवि है। वह अपने मन की पीडा का इलाज श्रीकृष्ण में ढूँढ़ती है। ब्रजभाषा है। पद में गेयात्मकता है। इसमें मीरा का कया के पति झलकता है। वह उनकी प्रेम दीवानी है। राजस्थानी भाषा है। श्रीकृष्ण की स्तुति है। शब्दों की बार-बार आवृत्ति है। एकनिष्ठ भावना है। माधुर्य-भाव की भक्ति है।
शब्दार्थ
सम्पादनहेरी = अरी। म्हाँ = मै। दरद = प्रेम की पीर पीड़ा । दिवाणी = दीवानी, पागल। जाण्याँ-जानता है । जौहर = रत्न। कोय - कोई । री - की । गत - दशा । अगण - अग्नि ।
जौहरी - सुनार । मारया- मारी हुई। डोल्यां - डोलती हूँ । वेद - वैद्य। मिटाँगा = मिटेगा, मिटना। वेद = दवा देने वाला, चिकित्सक। साँवरो = श्रीकृष्ण।