हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक) सहायिका/तुम्हारी आँखों का बचपन

हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक) सहायिका
 ← मधुप गुनगुना कर तुम्हारी आँखों का बचपन अरे कहीं देखा हैं तुमने → 
तुम्हारी आँखों का बचपन

संदर्भ

तुम्हारी आंखों का बचपन कविता छायावादी काव्याधारा के प्रमुख आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित है। साहित्यिक जगत में प्रसाद जी एक सफल व श्रेष्ठ कवि, नाटककार कथाकार व निंबंध लेखक के रूप में विख्यात रहे है।


प्रसंग तुम्हारी आँखों का बचपन – इस कविता में कवि कहते हैं कि जब बचपन था तो सबकुछ अपना था हँसते थे, खेलते थे, अल्हड़ मौज मस्ती करते थे वो बचपन के दिन अब केवल आखों में बसे हैं, क्या आज हम आज भी वैसे हैं जैसे बचपन मे थे कितना सरल था वह बचपन।


व्याख्या

कविता में कवि अपने प्रिय की आंखों में खेलते बचपन की झलक पाकर शैशव कालीन स्मृतियों में खो जाते हैं।कवि कहते हैं आंगन तरह-तरह के खेलो से गूंज उठा है। कवि का मन अपने प्रिय की बाल्यावस्था के क्रीडा में आनंद विभोर हो जाता है। और अपने प्रिय को खेलता देखकर उसका मन बार-बार हार मानता था। विगत स्मृतियां कवि के मन को बेचैन कर देती है और वह जानना चाहता है कि क्या आज भी प्रिय की आंखों में नित्य किशोर विद्यमान है। कवि पूछता है आज भी क्या प्रिय की आंखों में वही अपनत्व ठहरा हुआ है, जिसे वह अपना सर्वस्व मानता था। कवि ने बचपन की कुकेल भरी क्रीड़ा किलकारीयों की गूंज, संकेतों पर फिसलना, बढ़ना, रूठना, मनाना आदि का सरस वर्णन करते हुए शैशव कालीन सुकुमारता सरलता सरसता आज भी प्रिय के आंखो में है।


विशेष

1) खड़ी बोली है

2) कविता आलोच्य है

3) स्मृतियों का वर्णन है

4) बचपन की क्रीड़ाओं का वर्णन किया गया है।

5) प्रसाद गुण है।