कवितावली

अयोध्याकाण्ड

कीरके कागर ज्यों नृपचीर, बिभूषन उप्पम अंगनि पाई।
औध तजी मगबासके रूख ज्यों, पंथके साथ ज्यों लोग-लोगाई॥
संग सुबंधु, पुनीत प्रिया, मनो धर्मु क्रिया धरि देह सुहाई।
राजिवलोचन रामु चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाई॥१॥

व्याख्या

पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे,
केवटकी जाति, कछु बेद न पढ़ाइहौं।
सबु परिवारु मेरो याहि लागि, राजा जू,
हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं॥
गौतमकी घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,
प्रभुसों निषादु ह्वै कै बादु ना बढ़ाइहौं।
तुलसीके ईस राम, रावरे सों साँची कहौं,
बिना पग धोएँ नाथ, नाव ना चढ़ाइहौं॥८॥

व्याख्या

बनिता बनी स्यामल गौरके बीच,
बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।
मगजोगु न कोमल, क्यों चलिहै,
सकुचाति मही पदपंकज छ्वै॥
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,
पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।
सब भाँति मनोहर मोहनरूप
अनूप हैं भूपके बालक द्वै॥१८॥

व्याख्या

साँवरे-गोरे सलोने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है।
बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेषु कियो है॥
संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि रंचक रूप दियो है।
पायन तौ पनहीं न, पयादेंहि क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है॥१९॥

व्याख्या

सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने सयानी हैं जानकीं जानी भली।
तिरछे करि नैन, दै सैन, तिन्हैं समुझाइ कछू, मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलींं।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदैं बिगसीं मनो मंजुल कंजकलीं॥२२॥

व्याख्या

संदर्भ