आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी कविता/बिहारी
दोहा
मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाईं परैं स्याम हरित-दुति होइ॥१॥[१]
- व्याख्या
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत हैं नैननु हीं सब बात॥३२॥[२]
- व्याख्या
नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।
अली, कली ही सौं बँध्यों, आगैं कौन हवाल॥३८॥[३]
- व्याख्या
जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥१४१॥[४]
- व्याख्या
बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ॥४७२॥[५]
- व्याख्या
कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ-दाघ निदाघ॥४८९॥[६]
- व्याख्या
चिरजीवौ जोरी, जुरै क्यौं न सनेह गँभीर।
को घटि; ए बृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥६७७॥[७]
- व्याख्या
संदर्भ
- ↑ बिहारी रत्नाकर २०१५, p. २१.
- ↑ बिहारी रत्नाकर २०१५, p. ४०.
- ↑ बिहारी रत्नाकर २०१५, p. ४२.
- ↑ बिहारी रत्नाकर २०१५, p. ८५.
- ↑ बिहारी रत्नाकर २०१५, p. २१८.
- ↑ बिहारी रत्नाकर २०१५, p. २२६.
- ↑ बिहारी रत्नाकर २०१५, p. ३०२.
स्रोत
बिहारी-रत्नाकर, संपादक-जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, २०१५, आईएसबीएन:९७८-८१-८०३१-९३६-५